Santoshi Mata vrat katha | शुक्रवार व्रत कथा | संतोषी माँ व्रत कथा, आरती, विधि और मंत्र सहित संपूर्ण जानकारी – Shukravar Vrat Katha

Santoshi Mata Vrat Katha, शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा
Santoshi Mata Vrat Katha, शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा

Santoshi Mata Vrat Katha: यदि आप शुक्रवार का व्रत करते हैं, तो उस दिन शुक्रवार व्रत कथा सुनना या पढ़ना अत्यंत आवश्यक माना गया है। ऐसा करने से देवी लक्ष्मी की पूजा-आराधना पूर्ण मानी जाती है और व्रत का फल कई गुना बढ़ जाता है। इस लेख में हम आपको शुक्रवार व्रत की संपूर्ण कथा विस्तार से बता रहे हैं। आइए जानते हैं — शुक्रवार व्रत कथा का पूरा वर्णन…

Santoshi ma vrat katha | शुक्रवार व्रत कथा | संतोषी माँ व्रत कथा

एक गाँव में एक बूढ़ी माँ रहती थी, जिसके सात बेटे थे। उनमें से छह बेटे मेहनती और कमाने वाले थे, जबकि सातवां बेटा निकम्मा था। बूढ़ी माँ रोज़ छह बेटों को पहले भोजन कराती, और फिर उनका बचा हुआ जूठा भोजन सातवें बेटे को देती थी।

एक दिन सातवां बेटा अपनी पत्नी से बोला, “देखो, माँ मुझसे कितना प्रेम करती हैं!” पत्नी मुस्कराई और बोली, “क्यों नहीं, सबका जूठा खाना तुम्हें खिलाकर सारा प्रेम दिखा देती हैं।” बेटा बोला, “मुझे यकीन नहीं, जब तक अपनी आँखों से न देख लूँ।” पत्नी ने हँसते हुए कहा, “ठीक है, जब देख लोगे, तब मानोगे।”

कुछ दिनों बाद घर में एक बड़ा त्योहार आया। सात प्रकार के व्यंजन और चूरमा के लड्डू बनाए गए। बेटा पत्नी की बात की सच्चाई परखने के लिए सिरदर्द का बहाना बनाकर एक पतला कपड़ा सिर पर ओढ़े रसोई में जाकर लेट गया और कपड़े के अंदर से सब देखने लगा।

छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा — माँ ने उनके लिए सुंदर-सुंदर आसन बिछाए, सात प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन परोसे और प्रेमपूर्वक आग्रह करके उन्हें भोजन कराया। जब वे सभी भोजन कर उठे, तब माँ ने उनकी थालियों में बचे लड्डुओं के टुकड़े इकट्ठे किए और उन टुकड़ों से एक नया लड्डू बना दिया। फिर उसने पुकारा, “उठ बेटा! तेरे भाइयों ने भोजन कर लिया, अब तू भी खा ले।”

यह दृश्य देखकर बेटे का दिल टूट गया। वह बोला, “माँ! मुझे अब भोजन नहीं करना है। मैं परदेस जा रहा हूँ।”
माँ ने कहा, “अगर कल जाना है तो आज ही चला जा।” वह बोला, “ठीक है माँ, मैं अभी जाता हूँ,” और घर से निकल पड़ा।

रास्ते में उसे अपनी पत्नी की याद आई। वह गौशाला में गोबर के कंडे थाप रही थी। बेटा वहाँ गया और बोला, “मेरे पास कुछ नहीं है, बस यह अंगूठी है — इसे अपने पास रख लो, और अपनी कोई निशानी मुझे दे दो।”

पत्नी ने कहा, “मेरे पास क्या है देने को? बस यह गोबर लगा हाथ है।”
इतना कहकर उसने अपने गोबर से सने हाथ की थाप उसके पीठ पर मार दी।
वह यही अपनी पत्नी की निशानी लेकर परदेस के लिए निकल पड़ा…

वह घर छोड़कर चल पड़ा और कई दिनों तक चलता रहा। अंततः वह एक दूर देश पहुँचा। वहाँ उसे एक बड़े साहूकार की दुकान दिखाई दी। वह अंदर गया और बोला, “सेठ जी, मुझे कोई काम पर रख लीजिए।”

साहूकार को उस समय सचमुच एक भरोसेमंद नौकर की सख्त ज़रूरत थी। सेठ ने उसे देखा और कहा, “ठीक है, काम देखकर तनख्वाह तय होगी।”
उसने विनम्रता से उत्तर दिया, “सेठ जी, जैसा आप उचित समझें।”

इस प्रकार उसे साहूकार की दुकान पर नौकरी मिल गई। वह दिन-रात ईमानदारी और लगन से काम करने लगा। धीरे-धीरे उसने दुकान का पूरा हिसाब-किताब, ग्राहकों से व्यवहार, और माल की खरीद-बिक्री तक सब कुछ संभाल लिया।

साहूकार के यहाँ पहले से सात-आठ नौकर काम करते थे। वे सब उसकी मेहनत और बुद्धिमानी देखकर चकित रह गए। उसकी लगन, निष्ठा और ईमानदारी ने सबका दिल जीत लिया।

कुछ ही महीनों में उसने साहूकार का पूरा भरोसा हासिल कर लिया। सेठ ने देखा कि यह नौकर बाकी सब से कहीं बढ़कर है, इसलिए तीन महीने के भीतर ही उसे मुनाफे में साझेदार बना लिया।

समय बीतता गया — परिश्रम, सच्चाई और समझदारी के बल पर वह बारह वर्षों में नगर का नामी सेठ बन गया। पुराना साहूकार भी निश्चिंत होकर अपना सारा कारोबार उसी के हवाले कर दूर देश चला गया।

इधर उसकी पत्नी पर जो बीती, वह अत्यंत दुखद थी। पति के जाने के बाद सास-ससुर ने उसे तानों और तिरस्कार से सताना शुरू कर दिया। उसे सुबह से शाम तक गृहस्थी के सारे काम करवाते और फिर लकड़ी लाने के लिए जंगल भेज देते। घर में जो आटे की भूसी बचती, उसी से उसकी रोटी बनाई जाती और फूटे हुए नारियल की नरेली में पानी भरकर दिया जाता। वह दुख सहती रही, पर किसी से कुछ नहीं कहा।

एक दिन जब वह जंगल में लकड़ियाँ लेने जा रही थी, रास्ते में उसने देखा — कुछ स्त्रियाँ एक स्थान पर बैठकर श्रद्धा-भाव से पूजा कर रही थीं। वह पास गई और विनम्र स्वर में बोली,
“बहनो, यह तुम किस देवता या देवी का व्रत कर रही हो? इसका क्या फल मिलता है? कृपया मुझे इसकी विधि बताओ, मैं जीवनभर तुम्हारा उपकार मानूंगी।”

तब उनमें से एक वृद्ध और सौम्य स्त्री मुस्कराई और बोली —
“बहन, यह संतोषी माता का व्रत है। इस व्रत से निर्धनता और दरिद्रता का नाश होता है, घर में लक्ष्मी का वास होता है। जो मन में चिंता और क्लेश हो, वह मिट जाता है और हृदय में शांति तथा संतोष आता है।

जो स्त्री निःसंतान हो, उसे संतान प्राप्ति होती है। जिसका पति परदेस गया हो, वह शीघ्र घर लौट आता है। कुवारी कन्या को मनपसंद वर मिलता है। चलता हुआ मुकदमा समाप्त हो जाता है। घर-परिवार में कलह-क्लेश दूर होकर सुख-शांति का वास होता है। धन-सम्पत्ति बढ़ती है और हर मनोकामना पूर्ण होती है।”

फिर वह बोली, “संतोषी माता सच्चे मन से पूजा करने वालों की हर इच्छा पूरी करती हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं।”

वह विनम्रता से फिर पूछने लगी — “बहन, कृपया यह भी बताओ कि यह व्रत कैसे किया जाता है? इसकी पूरी विधि क्या है? अगर मुझे पता चल जाए तो मैं भी माता का व्रत अवश्य करूंगी।”

तब वह धर्मपरायण स्त्री प्रेमपूर्वक समझाने लगी — “यह व्रत अत्यंत सरल और फलदायी है। इसे श्रद्धा, प्रेम और बिना किसी चिंता के करना चाहिए।
व्रत के लिए सवा पाँच पैसे से लेकर सवा पाँच आने तक — या अपनी सामर्थ्य और भक्ति के अनुसार — गुड़ और चने का प्रसाद रखना चाहिए।

हर शुक्रवार को यह व्रत करें। दिनभर निराहार (उपवास) रहें और सायंकाल माता संतोषी की कथा कहें या सुनें।
यदि कोई श्रोता न मिले तो आप स्वयं घी का दीपक जलाकर, उसके सामने जल से भरा पात्र रखकर श्रद्धापूर्वक कथा पढ़ें — परंतु नियम न टूटे।

व्रत को तब तक जारी रखें जब तक आपकी मनोकामना पूरी न हो जाए।
जब कार्य सिद्ध हो जाए, तब विधिवत व्रत का उद्यापन करें — कथा, आरती और ब्राह्मण भोजन के साथ।

माता अत्यंत कृपालु हैं। वे अपने भक्तों को तीन महीने में ही फल प्रदान करती हैं।
और यदि किसी व्यक्ति के ग्रह दोष या अशुभ योग भी हों, तो माता एक वर्ष के भीतर उन्हें भी अनुकूल कर देती हैं।
जो सच्चे मन से यह व्रत करता है, उसके जीवन में संतोष, समृद्धि और सुख की वर्षा होती है।”

वह स्त्री आगे समझाने लगी —
“ध्यान रखना बहन, कार्य सिद्ध होने के बाद ही उद्यापन करना चाहिए, बीच में कभी नहीं। जब मनोकामना पूरी हो जाए, तब व्रत का समापन इस विधि से करें —

उद्यापन के दिन अढ़ाई सेर आटे का खाजा, उसी के अनुसार खीर और चना का साग बनाएं। फिर आठ बालकों को आदरपूर्वक भोजन कराएं।
जहाँ तक संभव हो, अपने देवर, जेठ, भाई-बंधु या परिवार के बालक ही लें।
यदि वे न मिलें तो रिश्तेदारों या पड़ोस के बच्चों को बुलाकर उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन कराएं।

भोजन के बाद उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें और माता का नियम पूर्ण करें।
उस दिन एक बात का विशेष ध्यान रखें — घर में कोई भी खटाई (खट्टा पदार्थ) न खाए, क्योंकि यह संतोषी माता के व्रत में वर्जित है।”

यह सब सुनकर वह महिला अत्यंत प्रसन्न हुई।
वह वहाँ से चली और रास्ते में जंगल से लाए लकड़ियों के बोझ को बेच दिया।
उन पैसों से उसने गुड़ और चना खरीदा और संतोषी माता के व्रत की तैयारी करने लगी।

आगे जाते हुए उसे एक माता संतोषी के मंदिर के दर्शन हुए।
वह श्रद्धा से भीतर गई, माता के चरणों में लोट गई, और आँखों में आँसू लिए विनती करने लगी —

> “हे माता संतोषी! मैं दीन और अज्ञानी स्त्री हूँ।
> व्रत के नियमों को ठीक से नहीं जानती, पर हृदय से तुम्हारी शरण आई हूँ।
> हे दयामयी! मेरे दुखों का नाश करो, मेरे जीवन में सुख और शांति दो।
> मैं सच्चे मन से तुम्हारा व्रत करूंगी — कृपा करके मुझे स्वीकार करो।”

उसकी आँखों से आँसू बहते रहे और मंदिर का वातावरण माता के करुणा और आश्वासन से भर गया।

माता को दया आई। एक शुक्रवार बीता ही था कि दूसरे शुक्रवार को उसके पति का पत्र आ गया और तीसरे शुक्रवार तक उसका भेजा हुआ पैसा भी पहुंच गया। यह देखकर जेठानी ने ताना मारा, “इतने दिनों बाद इतना पैसा आया, इसमें क्या बड़ी बात है?” और घर के लड़के कहने लगे, “अब तो काकी के पास पैसे और खत आने लगे, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, बुलाने पर भी नहीं बोलेगी!”

लेकिन वह सीधी-सादी और भोली स्त्री केवल मुस्कुराकर बोली, “भैया, पत्र आए या रुपया, इससे तो हम सबका ही भला है।” इतना कहकर उसकी आंखों में आंसू भर आए, और वह संतोषी माता के मंदिर पहुंचकर चरणों में गिर पड़ी। उसने विनम्रता से कहा — “मां! मैंने आपसे धन नहीं मांगा। मुझे रुपयों से कोई काम नहीं। मैं तो अपने सुहाग की सलामती और अपने पति के दर्शन चाहती हूं। मुझे मेरे स्वामी की सेवा ही चाहिए।”

माता संतोषी उसकी सच्ची श्रद्धा देखकर प्रसन्न हुईं और बोलीं — “जा बेटी, तेरा पति शीघ्र ही लौट आएगा।” यह सुनकर वह खुशी से बावली हो गई और घर लौटकर बड़े उत्साह से अपना काम करने लगी। तभी संतोषी माता मन ही मन विचार करने लगीं — “मैंने तो इस भोली कन्या से कह दिया कि उसका पति आएगा, पर वह आएगा कहां से? उसे तो अपनी पत्नी की याद तक नहीं।” ऐसा सोचकर माता ने स्वयं उपाय किया। उन्होंने उस युवक के स्वप्न में जाकर कहा — “पुत्र! तेरी पत्नी बहुत कष्ट में है।” वह बोला — “हां माता, मुझे मालूम है, पर मैं क्या करूं? परदेस में हूं, लेन-देन का बहुत काम बाकी है, कोई उपाय नहीं सूझता कि कैसे जाऊं। आप ही कोई रास्ता बताइए।”

माता बोलीं — “सुबह नहा-धोकर संतोषी माता का नाम लेकर घी का दीपक जलाना और फिर दुकान पर जाकर बैठना। तू देखेगा कि सारा लेन-देन अपने आप चुक जाएगा, माल बिक जाएगा और सांझ होते-होते धन का ढेर लग जाएगा।” अगले दिन उसने माता की आज्ञा मानी। सुबह उठकर स्नान किया, दीपक जलाया और श्रद्धा से माता का नाम लेकर दुकान पर जा बैठा। दिनभर में चमत्कार हुआ — सारा बकाया वसूला गया, माल बिक गया और ढेर सारा धन इकट्ठा हो गया। वह अत्यंत प्रसन्न हुआ, माता को नमन किया और घर लौटने की तैयारी करने लगा।

उधर उसकी पत्नी रोज की तरह लकड़ियां लेने जंगल गई थी। लौटते वक्त थकान के कारण वह संतोषी माता के मंदिर पर थोड़ी देर बैठ गई। तभी उसने देखा — दूर से धूल उड़ती हुई आ रही है। उसने माता से पूछा, “मां, यह धूल कैसी उड़ रही है?” माता ने मुस्कुराकर कहा — “पुत्री, तेरा पति आ रहा है।” यह सुन वह आनंद से भर उठी। माता ने कहा — “अब तू ऐसा कर — लकड़ियों के तीन गट्ठर बना।

एक नदी किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर। तेरे पति को इन लकड़ियों को देखकर यहीं ठहरने का मन होगा। वह वहीं रुककर भोजन बनाएगा और फिर तेरे घर जाएगा। जब वह गांव में पहुंचे, तो तू लकड़ी का गट्ठर सिर पर लेकर चौक में जाकर तीन बार पुकारना — ‘लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो! आज कौन मेहमान आया है?’”

माता की आज्ञा सुनकर वह प्रसन्न मन से बोली — “जैसी आज्ञा माता।” उसने वैसा ही किया — तीन गट्ठर बनाए, एक नदी के तट पर, दूसरा मंदिर में और तीसरा सिर पर रख लिया। तभी दूर से उसका पति आया। उसने सूखी लकड़ियां देखीं और सोचा, “यहीं थोड़ा विश्राम कर लूं, नाश्ता-पानी बनाऊं और फिर गांव जाऊं।”
यह वही स्थान था, जहां संतोषी माता की कृपा से उसकी पत्नी रोज विश्राम करती थी — अब वही स्थान उनके पुनर्मिलन का पावन साक्षी बनने वाला था।

इस प्रकार वह अपने पति से मिलकर जैसे स्वर्ग का सुख पाने लगी थी। पति ने घर आकर भोजन किया, फिर विश्राम कर गांव पहुंचा। उसी समय उसकी पत्नी सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए आंगन में आई। उसने गट्ठर को ज़मीन पर डालते हुए ज़ोर से तीन बार पुकारा — “लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठा लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खोपरे में पानी दो! आज कौन मेहमान आया है?”

यह सुनकर सास चौंकी और मन ही मन अपने किए हुए अत्याचार याद आने लगे। उसने बात संभालते हुए कहा, “बहू, तू ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक आ गया है। अब तो बैठ, मीठा भात खा, अच्छे कपड़े और गहने पहन।”

इतना सुनकर पति बाहर आया और अपनी पत्नी के हाथ की अंगूठी देखकर पहचान गया। उसने मां से पूछा, “मां, यह स्त्री कौन है?” मां बोली, “बेटा, यही तेरी पत्नी है। जबसे तू गया है, तबसे यह दर-दर भटकती रही है, जैसे कोई जानवर। कामकाज कुछ नहीं करती, पर खाने को चार बार चली आती है।

अब आकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे का पानी मांगती है।” यह सुनकर पुत्र बोला, “मां, मैंने अब सब समझ लिया — न केवल इसे देखा है, बल्कि तेरे व्यवहार को भी। अब मुझे दूसरे घर की चाबी दो, मैं वहीं रहूंगा।” मां ने अनिच्छा से चाबियां आगे रख दीं।

पति-पत्नी ने नया घर खोला। माता की कृपा से वहां एक ही दिन में राजमहल जैसा वैभव स्थापित हो गया। अब वह सुख-शांति से रहने लगी। अगले शुक्रवार को उसने पति से कहा, “मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है।” पति बोला, “बहुत अच्छा, श्रद्धा से करो।”

उसने बड़ी भक्ति से उद्यापन की तैयारी की और अपने जेठ के बच्चों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। बच्चों ने आने की हामी भर दी, लेकिन जेठानी के मन में ईर्ष्या थी। उसने अपने बच्चों को समझा दिया — “देखो, जब भोजन करने बैठो तो खटाई मांगना, ताकि उसका उद्यापन अधूरा रह जाए।”

भोजन के दिन लड़के आए, खीर-पूरी खाई, लेकिन सिखाई हुई बात याद आते ही बोले, “हमें कुछ खटाई चाहिए, बिना उसके खीर अच्छी नहीं लगती।” वह भोली स्त्री कुछ समझ न सकी और पैसे देकर उन्हें बाजार भेज दिया। लड़के इमली खरीदकर खा आए। यह देखकर संतोषी माता कुपित हो गईं — क्योंकि व्रत के दिन खटाई का सेवन वर्जित है। माता ने क्रोधित होकर उसके पति पर विपत्ति डाल दी — राजा के दूत आए और उसे पकड़कर ले गए।

यह देख वह स्त्री रो पड़ी। संतोषी माता के मंदिर जाकर बोली, “मां! यह आपने क्या किया? जो हंसाया था, अब रुला क्यों दिया?” माता बोलीं, “पुत्री, तूने मेरा व्रत भंग किया है। खटाई का निषेध भूल गई।” वह गिड़गिड़ाकर बोली, “मां, मैंने स्वयं तो कुछ नहीं खाया। यह तो बच्चों की भूल थी। मुझे क्षमा करो, माता।” माता ने कहा, “ऐसी भूल भी क्या भूल होती है? परंतु अब ध्यान रखना।” वह बोली, “मां, अब कभी कोई भूल नहीं होगी। बताओ, मेरे पति कैसे लौटेंगे?”

माता बोलीं, “जा, तेरा पति तुझे रास्ते में ही मिलता है।” वह मंदिर से निकली तो सचमुच रास्ते में उसका पति सामने से आता दिखा। वह बोली, “कहां गए थे?” पति ने मुस्कुराते हुए कहा, “राजा ने मेरे कमाए धन पर कर मांगा था, वही देने गया था।” वह प्रसन्न होकर बोली, “भला हुआ, अब घर चलो।” अगले शुक्रवार को फिर उसने कहा, “मां का उद्यापन पूरा करना है।” पति ने कहा, “ठीक है, श्रद्धा से करो।” लेकिन जेठानी ने फिर अपने बच्चों को वही सिखा दिया — “भोजन से पहले खटाई मांगना।”

लड़के जब भोजन करने बैठे तो पहले ही बोल उठे — “हमें खीर-पूरी नहीं भाती, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो।” बहू ने शांत स्वर में कहा, “आज के दिन खटाई वर्जित है, जो मिला है, वही प्रेम से खाओ।” लेकिन लड़के ज़िद पर अड़ गए और बिना भोजन किए उठकर चले गए। वह दुखी हुई, पर माता के व्रत का नियम न तोड़ा। उसने तुरंत ब्राह्मणों के लड़कों को बुलाकर प्रेम से भोजन कराया और दक्षिणा में उन्हें एक-एक फल दिया। यह देखकर संतोषी माता अत्यंत प्रसन्न हुईं।

माता की कृपा से नौ महीने बाद उस स्त्री को चंद्रमा के समान तेजस्वी और सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। अब वह हर शुक्रवार को अपने पुत्र को लेकर संतोषी माता के मंदिर में जाती, भक्ति और आभार से माता के चरणों में शीश नवाती।

एक दिन माता ने सोचा — “यह मेरी पुत्री रोज मेरे मंदिर आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं और देखूं इसका जीवन कैसा है।” माता ने अपनी दिव्य लीला दिखाने के लिए भयानक रूप धारण किया — मुख पर गुड़ और चना सना हुआ, ऊपर से मुंडे जैसे होंठ, जिन पर मक्खियां भिनभिना रही थीं। जैसे ही माता ने घर की दहलीज पर कदम रखा, उसकी सास चिल्ला उठी — “अरे देखो! कोई चुड़ैल या डाकिनी चली आ रही है, जल्दी इसे भगाओ, नहीं तो सबको खा जाएगी!”

यह दृश्य देखकर बहू जो ऊपर की कोठरी से झरोखे से देख रही थी, प्रसन्नता से झूम उठी — बोली, “अरे, ये तो मेरी संतोषी माता हैं!” उसने तुरंत दूध पीते बच्चे को गोद से उतार दिया और माता के स्वागत को दौड़ी। सास यह देखकर क्रोधित हो गई और बोली, “अरी पगली! इसे देखकर इतनी उतावली क्यों हुई कि बच्चे को पटक दिया?”

उसी क्षण माता के प्रताप से पूरा घर प्रकाशमान हो गया। जहां देखो वहां केवल सुंदर बालक दिखाई देने लगे। सास आश्चर्य में भर उठी। बहू ने विनम्रता से कहा, “मां जी! ये वही संतोषी माता हैं जिनका मैं व्रत करती हूं।” इतना कहते ही उसने घर के सभी दरवाजे खोल दिए। सबने माता के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी — “हे माता, हम अज्ञानी हैं। हमने अज्ञानवश आपके व्रत का अनादर किया। हमें क्षमा करें, मां।”

माता की करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने सबको आशीर्वाद दिया।
सास भी folded hands से बोली — “हे संतोषी माता! जैसे आपने मेरी बहू को सुख, समृद्धि और संतान का वरदान दिया, वैसे ही जो कोई इस कथा को श्रद्धा से पढ़े या सुने, उसके सभी मनोरथ पूर्ण करें।”

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शुक्रवार व्रत कथा एवं संतोषी माता की पूजा विधि

Santoshi Mata Vrat Katha, शुक्रवार संतोषी माता व्रत कथा
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शुक्रवार व्रत का महत्व

शुक्रवार का व्रत मां संतोषी माता को समर्पित है। यह व्रत करने से घर में सुख, शांति, समृद्धि और संतोष का वास होता है। विशेषकर महिलाएं यह व्रत अपने परिवार की खुशहाली और धन-संपन्नता के लिए करती हैं।

शुक्रवार व्रत का संकल्प

सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें और पूर्व दिशा की ओर मुंह करके यह संकल्प लें –

“ॐ नमः संतोष्यै मातरम्।
आज के दिन मैं श्रद्धा और भक्ति से आपका व्रत एवं पूजन करूँगा/करूँगी।
माता संतोषी मुझे और मेरे परिवार को सुख-समृद्धि प्रदान करें।”

शुक्रवार व्रत पूजा सामग्री

  • माता संतोषी की प्रतिमा या चित्र
  • चावल, रोली, फूल, दीपक, अगरबत्ती
  • गुड़ और चना (भोग के लिए)
  • कलश, जल, नारियल
  • प्रसाद के लिए नई थाली

शुक्रवार व्रत – संतोषी माता व्रत पूजा विधि

  • प्रातः स्नान कर साफ वस्त्र पहनें।
  • पूजा स्थान को स्वच्छ करें और वहां माता संतोषी की तस्वीर या मूर्ति स्थापित करें।
  • कलश में जल भरकर उस पर नारियल रख दें।
  • दीपक और अगरबत्ती जलाएं।
  • माता को चावल, रोली, फूल अर्पित करें।
  • गुड़ और चने का भोग लगाएं (यही उनका प्रिय प्रसाद है)।
  • संतोषी माता की कथा ध्यानपूर्वक सुनें या पढ़ें।
  • कथा के बाद माता की आरती करें।
  • प्रसाद में सबको गुड़-चना ही वितरित करें।

🍚 शुक्रवार व्रत में क्या खाएं और क्या न खाएं

✔️ क्या खा सकते हैं

  • फलाहार (फल, दूध, सूखे मेवे)
  • चना, गुड़, साबूदाना, कुट्टू या सिंहाड़े का आटा
  • मूंगफली या मेवे

❌ क्या नहीं खाना चाहिए

  • खट्टा पदार्थ बिल्कुल नहीं (नींबू, इमली, दही आदि)
  • प्याज, लहसुन का प्रयोग न करें
  • शुक्रवार व्रत वाले दिन किसी को डांटें या दुखी न करें
  • दोपहर बाद क्रोध और कटु वचन से बचें

शुक्रवार व्रत की समाप्ति

शुक्रवार व्रत लगातार 16 शुक्रवार तक किया जाता है। 16वें शुक्रवार को अष्टमी या पूर्णिमा तिथि को विधि-विधान से कथा, आरती और ब्राह्मण भोजन कराकर व्रत पूरा किया जाता है।

उस दिन माता को चने और गुड़ का भोग विशेष रूप से अर्पित करें।

🪔 जय संतोषी माता आरती ~ शुक्रवार व्रत

Santoshi Mata Aarti (संतोषी माता की आरती)

जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता।
अपने सेवक जन को, सुख संपत्ति दाता।।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

सुंदर, चीर सुनहरी, मां धारण कीन्हो।
हीरा पन्ना दमके, तन श्रृंगार लीन्हो।।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

गेरू लाल छटा छवि, बदन कमल सोहे।
मंद हंसत करूणामयी, त्रिभुवन जन मोहे।।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता ..

स्वर्ण सिंहासन बैठी, चंवर ढुरे प्यारे।
धूप, दीप, मधुमेवा, भोग धरें न्यारे।।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

गुड़ अरु चना परमप्रिय, तामे संतोष कियो।
संतोषी कहलाई, भक्तन वैभव दियो।।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

जय शुक्रवार प्रिय मानत, आज दिवस सोही।
भक्त मण्डली छाई, कथा सुनत मोही।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

मंदिर जगमग ज्योति, मंगल ध्वनि छाई।
विनय करें हम बालक, चरनन सिर नाई।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

भक्ति भावमय पूजा, अंगीकृत कीजै।
जो मन बसे हमारे, इच्छा फल दीजै।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

दुखी, दरिद्री ,रोगी , संकटमुक्त किए।
बहु धनधान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

ध्यान धर्यो जिस जन ने, मनवांछित फल पायो।
पूजा कथा श्रवण कर, घर आनंद आयो।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

शरण गहे की लज्जा, राखियो जगदंबे।
संकट तू ही निवारे, दयामयी अंबे।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

संतोषी मां की आरती, जो कोई नर गावे।
ॠद्धिसिद्धि सुख संपत्ति, जी भरकर पावे।
जय संतोषी माता, मैया जय संतोषी माता..

🪶 शुक्रवार व्रत मंत्र – संतोषी माता

“ॐ संतोष्यै नमः॥”

इस मंत्र का जाप व्रत के दौरान 108 बार करने से मन को शांति और इच्छाओं की पूर्ति होती है।

💫 शुक्रवार व्रत के लाभ

  • घर में सुख-समृद्धि आती है
  • परिवार में शांति और प्रेम बढ़ता है
  • आर्थिक स्थिति मजबूत होती है
  • मन की इच्छाएँ पूर्ण होती हैं
  • नारी के जीवन में संतोष और आत्मविश्वास बढ़ता है

जो भी भक्त श्रद्धा और भक्ति से शुक्रवार व्रत कर संतोषी माता की पूजा करता है, उस पर माता सदा अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखती हैं। उसके जीवन में कभी दुःख, दरिद्रता या असंतोष नहीं आता — घर में सदा सुख, शांति, प्रेम और समृद्धि बनी रहती है।

🌸 जय संतोषी माता! 🌸

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पवन शास्त्री, साहित्याचार्य (M.A.) - Author

भारतीय धर्म, पुराण, ज्योतिष और आध्यात्मिक ज्ञान के शोधकर्ता। Sursarita.in (धर्म कथा गंगा) पर वे सरल भाषा में धार्मिक कथाएँ, राशिफल, पञ्चांग और व्रत विधियाँ साझा करते हैं।

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Pawan Shastri

Pawan Shastri is an experienced music teacher and spiritual knowledge expert with 10 years of experience in harmonium, keyboard, singing, and classical music.

He holds an M.A. degree and is also a certified Jyotish Shastri (Astrology Expert). His articles and content aim to share devotional, musical, and spiritual knowledge in a simple, accurate, and emotionally engaging manner.

Pawan Shastri believes that the fusion of devotion in melody and wisdom in knowledge can bring peace, energy, and positivity to everyone’s life.

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